गुरुवार, 24 नवंबर 2011

युगांतर







(Pic Taken from hindudevotionalblg.com)













होगा क्या ....... ??
जलेगी एक और लंका
होगा एक और युद्ध
राम और रावण का !!

किन्तु, हा हंत ! इसमें
विजयी रावण होगा
क्योंकि इस युग में लोगो
विभीषण असत्य बोलेगा
नाभि के बदले वो
मस्तिष्क बोलेगा .......... !!

होगा क्या ....... ??
लिखी जायेगी एक और रामायण
कथा कुछ उल्टी होगी
किन्तु, इस युग में लोगो
हर भक्तों के द्वारा
यही रामायण पढ़ी जायेगी
होगा क्या ....... !!

उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई


मंगलवार, 15 नवंबर 2011

साजन मोहे पीहर छोड़े चले हैं बिदेस री ....... !!

साजन मोहे पीहर छोड़े चले हैं बिदेस री
सासू रोवे आंसू पोछें, बोले न कछु और री ...... !!

बादर अईहें सावन - भादो करिबो का हम खेल री
अँखियाँ झर - झर अबहीं बरसें, समझें नहीं पीर री ........ !!

रोवत - रोवत अँखियाँ सूजीं, कहैं ना मैं सोयी री
बैरी निंदिया, साजन संग ही, गयी हें बिदेस री ..... !!

चूड़ी - बिंदिया भावे नाहीं लगे सब बिदेह री
कहे पहरूं सोना – चांदी, देखिहें हमका कौन री ....... !!

गाभिन गइया बछिया दीहें ननद कहे देख री
हे पीर अपनी कासे बोलूँ, सखी न संदेस री ....... !!

बाबुल मोसे अँखियाँ मीचें बड़े सब निर्मोह री
बोलो मइया हमका भेजें पिया घर बिदेस री ........ !!

उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई

शनिवार, 12 नवंबर 2011

बेसबब खुद को लुटाया न करो ....... !!













दर्द आँखों से बहाया न करो
कीमती खूँ यूँ गवाया न करो .......... !!

क्यों जमाने से खफ़ा हो फिरना
बेसबब खुद को लुटाया न करो ....... !!

बेकसी ले के करो ये न सफ़र
जिंदगी तुम यूँ मिटाया न करो ........ !!

मुस्कुराने की अदा यूँ रखो
लाख हों ग़म पर दिखाया न करो ..... !!

ये पराया है जहाँ सुन "नादाँ"
जान लो पर ये सुनाया न करो ........ !!

उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई

शनिवार, 5 नवंबर 2011

श्रेष्ठ कौन ............... ?















कोई कहता धर्म प्रबल है
कोई कहता छल - प्रपंच
कहता हूँ मैं धर्म हीन
छल - प्रपंच संबल है ..................... !!

धर्म आधार देवगण भी
हैं छल - प्रपंच से विजयी हुए
यह पूछ महाभारत से
या फिर रामायण से ...................... !!

कहते हैं ये चीख - चीख
छल - प्रपंच किया था देवों नें
विजय देव की हुई नहीं
छल - प्रपंच विजय हुआ था ............ !!

कुरुक्षेत्र का मैदान यह देखो
कर्ण पडा था भूमि पर
था कहाँ धर्म, वो कहाँ थी नीति
था विवश कर्ण जब दलदल में ......... !!

पड़े थे भीष्म वाण - शय्या पर
सम्मुख शिखंडी था खडा
था अर्जुन का सर क्यों झुका हुआ
थी क्यों मुस्कान कृष्ण के होठों पर..... ??

खेल कृष्ण का था ये सारा
माया रची थी उसनें
कहो विजयी हुआ कौन था
कृष्ण या उसकी माया ........................ ??

पत्थर का यह सिन्धु - सेतु
कहता कथा पुराना है
हुआ राम - रावण युद्ध था
विजयी राम हुआ था ........................ !!

होड़ मची थी देवों में
वध रावण का करने को
फिरभी अडिग खड़ा था रावण
गिरा था भाई के धोखे से ................. !!

थे क्यों बिभीषण अश्रु में डूबे
थी क्यों मुस्कान राम के होठों पर
कहो विजयी हुआ कौन था
धर्म अथवा छल - प्रपंच ................... !!

हैं फिर कहते क्यों ये देव
धर्म की सदा जय है
"धर्म - धर्म" अरे ! धर्म क्या
इसके पीछे भी "माया" है ................. !!

हैं कहते जब इतिहास यही
वो छल से विजयी हुआ है
कहो फिर हुआ कौन प्रबल
धर्म अथवा छल - प्रपंच .................. ??

उत्पल कान्त मिश्र

(मेरी यह कविता किसी के धार्मिक व अध्यात्मिक विश्वास या परिधार्नाओं का अपमान करने हेतु नहीं है अपितु एक विशेष सार को इंगित करनें हेतु धार्मिक कथाओं के परिदृश्यों को आधार बना कर लिखी गयी एक कविता मात्र है. यहाँ ये मैं इस कर उधृत कर रहा हूँ, क्यों वर्षों पहले एक कवी सम्मलेन में जब मैनें इस कविता का पाठ किया था तो मेरे एक बहुत ही करीबी मित्र ने सलाह दी कि शायद इस काव्य के कुछ अंश कुछ वर्ग को अच्छे ना लगें. इसके बाद मैनें कवी सम्मेलनों में भाग लेना बंद कर दिया था और आज यह कविता मूल रूप में ही क्षमा सहित आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ. आपकी टिप्पणियों का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।)

उत्पल कान्त मिश्र